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क्यों मनाते हैं बकरीद? कैसे हुई कुर्बानी देने की शुरुआत

क्यों मनाते हैं बकरीद? कैसे हुई कुर्बानी देने की शुरुआत


ईद-उल जुहा पर बकरे की कुर्बानी देने की प्रथा दुनिया भर में प्रचलित है। इस लेख में जानेंगे कि बकरीद क्यों मनाते हैं? बकरीद पर ईदगाह क्यों जाते हैं?

ईद अल-अजहा, ज़ु अल-हज्जा ( Zul al-Hijjah ) के 10 वें दिन और इस्लामी कैलेंडर के अनुसार 12वें महीने में मनाया जाता है। चंद्रमा की स्थिति के आधार पर हर साल ये तारीख़ बदलती रहती है। यही कारण है कि सभी देशों में अलग-अलग दिन ईद-उल-अजहा मनाया जाता है। ईद-उल अजहा मतलब बकरीद इस साल ईद उल-अजहा यानी बकरीद का पर्व 29 जून 2023 को मनाया जाएगा। वहीं सऊदी अरब में 28 जून को ईद उल-अजहा मनाई जाएगी। ईद-उल-फितर के बाद मुसलमानों का ये दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। इस अवसर पर ईदगाह या मस्जिदों में ख़ास नमाज़ अदा की जाती है। इस त्योहार के अवसर पर इस्लाम धर्म के लोग पाक साफ़ होकर नए कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ते हैं और उसके बाद कुर्बानी देते हैं। ईद-उल-फितर पर जहां खीर बनाने का रिवाज़ है वहीं बकरीद पर बकरे और दूसरे जानवरों की कुर्बानी दी जाती है। आइए जानते हैं कि बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई? पहले ईद कैसे मनाई जाती थी?


कैसे हुई कुर्बानी की शुरुआत?

इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार आख़िरी पैगंबर हज़रत मोहम्मद साहब हुए। हज़रत मोहम्मद के वक्त में ही इस्लाम पूरी दुनिया में फैल चुका था और आज जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं। लेकिन पैगंबर मोहम्मद से पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। कुल 1 लाख 24 हज़ार पैगंबरों में से एक थे हज़रत इब्राहिम। इन्हीं के दौर से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ।


कुर्बानी की कहानी

हज़रत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे। उनके बेटे का नाम हज़रत इस्माइल था। हज़रत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे। एक बार अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम की परीक्षा लेनी चाही कि वह कितने सच्चे दिल से अल्लाह को मानते हैं। एक दिन हज़रत इब्राहिम ने सपने में देखा कि अपनी सबसे प्यारी चीज़ को कुर्बान करने का हुक्म ख़ुदा की तरफ़ से आया है। हजरत इब्राहिम की नज़र में उनकी सबसे प्यारी चीज़ उनका बेटा इस्माइल था। इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था और हज़रत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को अल्लाह की राह में कुर्बान करने का फैसला किया।


शैतान ने हज़रत इब्राहिम को कुर्बानी देने से रोकना चाहा

कुर्बानी देने का फैसला करने के बाद हज़रत इब्राहिम अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए घर से निकल पड़े। इस दौरान रास्ते में उन्हें एक शैतान मिला और उसने हज़रत इब्राहिम को बहकाया और उन्हें कुर्बानी न देने की सलाह दी। शैतान ने कहा, अपने बेटे की कुर्बानी कौन देता है भला, इस तरह तो जानवर कुर्बान किए जाते हैं।

शैतान की बात सुनने के बाद हज़रत इब्राहिम को लगा कि अगर वो ऐसा करते हैं तो यह अल्लाह से नाफ़रमानी करनी होगी। इसलिए शैतान की बातों को नजर-अंदाज करते हुए वो आगे बढ़ गए।


बेटे की कुर्बानी से पहले हज़रत इब्राहीम ने आंखों पर पट्टी बांध ली

जब कुर्बानी की बारी आई तो हज़रत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली क्योंकि वो अपनी आंखों से बेटे को कुर्बान होते हुए नहीं देख सकते थे। कुर्बानी दी गई, फिर उन्होंने आंखों से पट्टी हटाई तो देखकर दंग रह गए। उन्होंने देखा की उनके बेटे के जिस्म पर खरोंच तक नहीं आई है। बल्कि बेटे की जगह बकरा कुर्बान हो गया है। इस घटना के बाद से ही जानवरों को कुर्बान करने का रिवाज़ शुरू हुआ।

कुर्बानी का गोश्त

बकरीद के दिन कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। एक ख़ुद के लिए, दूसरा सगे-संबंधियों के लिए और तीसरा गरीबों के लिए।


पैगंबर मोहम्मद के दौर में नमाज़ अदा होनी शुरू हुई

हज़रत इब्राहिम के ज़माने में जानवरों की कुर्बानी तो शुरू हुई लेकिन बकरीद आज के दौर में जिस तरह मनाई जाती है वैसे उनके वक्त में नहीं मनाई जाती थी। आज जिस तरह मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज़ पढ़ी जाती है वैसे हज़रत इब्राहिम के ज़माने में नहीं पढ़ी जाती थी। ईदगाह जाकर नमाज़ अदा करने का यह तरीक़ा पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ।

इस मसले पर इस्लामिक जानकार मौलाना हामिद नोमानी बताते हैं, “आज जिस अंदाज में ईद मनाई जाती है वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त में शुरू हुई थी। हजरत इब्राहिम के वक्त में कुर्बानी की शुरुआत हुई लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने का सिलसिला पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही आया। पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद ये तरीका अपनाया गया। उस वक्त पैगंबर मोहम्मद मदीना आ गए थे।”


नमाज़ के लिए ईदगाह क्यों जाते हैं, इस सवाल पर मौलाना नोमानी बताते हैं कि मस्जिद या ईदगाह दोनों की जगह ईद की नमाज पढ़ी जा सकती है। लेकिन ईदगाह जाकर नमाज़ अदा करना अच्छा तरीका माना जाता है। ऐसा इसलिए है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका तहज़ीब क्या है, उनका निज़ाम क्या है, वो कौन हैं। ईदगाह पर नमाज पढ़ने के अलावा एक-दूसरे से गले लगकर बधाई देने का भी रिवाज़ है।



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