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हमारी शादी, हमारा आईना - Hamari Shaadi Hamara Aaina

हमारी शादी, हमारा आईना


       निस्संदेह, ईश्वर ने आदमी और औरत को पैदा किया और विवाह के बंधन में बाँधा है। इस तरह मानव जाति की शुरुआत हुई। यही पति-पत्नी का रिश्ता ही सबसे पहले अस्तित्व में आया। शादी को संतान प्राप्ति तथा संसार में मनुष्य की जाति को चलाने के लिए आसान किया लेकिन आज का मनुष्य इस रिश्ते की पवित्रता को समझने के लिए तैयार नहीं है। कुछ हद तक धार्मिक रूप से हमारी विवाह व्यवस्था आज भी आसान है, लेकिन कुछ बेकार रस्मों ने इसे इतना कठिन बना दिया है कि शादी भी एक सामाजिक समस्या बन गयी है। ऐसा लगता है कि अगर ईश्वर ने मरने के बाद इसमें किए जाने वाले अनावश्यक ख़र्च का हिसाब माँगा तो कोई भी खरा नहीं उतरेगा। अगर लड़की है तो माता-पिता Fix deposit के लिए परेशान और लड़का है तो सारा खर्च लड़की के पिता से ही लेना समाज की परम्परा बन गयी है। सभी वर्गों में किसी न किसी रूप में बड़ी मात्रा में गैर-धार्मिक दहेज लेने की प्रथा भी जारी है। घर में शादी से पहले की थका देने वाली भारतीय रस्में, ईश्वर हमें इससे बचाए। पुरुष घरों के अंदर के मिथकों को रोकने में विफल रहे हैं। महिलाओं, बच्चों और रिश्तेदारों की पसंद ने पुरुषों का बेड़ा ग़र्क कर दिया है।

         घर से बाहर निकल कर किसी मैरेज-हाॅल में शादी समारोह करना एक ऐसी रस्म है जिससे हमारे समाज का पूरा कच्चा चिठ्ठा ही उजागर हो जाता है। आजकल शादी समारोह एक ऐसी जगह बन गई है जहां महिला और पुरुष की असामाजिक संगति खुल कर नजर आती हैं। जहां मनचले पुरुष और महिलाएं बेहद बेशर्म नज़र आते हैं और लड़कियों को विभिन्न अभद्र रूप के फैशन ड्रेस दिखाने का मौका भी मिल जाता है। जहां फोटो और वीडियो की बौछार होती रहती हैं। जहां ब्यूटी पार्लर में हज़ारों ख़र्च करके दुल्हन के श्रृंगार का प्रदर्शन किया जाता है। जहां घर की महिलाओं को भी सज-धज कर आने का खूबसूरत मौका मिलता है। अब तो शादी का वीडियो बनाकर सोशल साइट्स पर पोस्ट करने से भी कोई नहीं हिचकता है। सोशल मीडिया पर लोग अब अपने घर की महिलाओं और पत्नियों को प्रदर्शित करना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी समझते हैं। जिन घरों के तथाकथित धार्मिक पुरुष हैं वह भी खूब मजे़ ले रहे हैं जो सभ्य समाज को शोभा नहीं देता है।

        शादी के कार्ड पर भी नजर डालें तो इसे निमंत्रण- पत्र के बजाय घमंडी-प्रदर्शन-पत्र कहा जाए तो बेहतर है। ऐसे कार्ड के जरिए पहले से ही लोगों को होने वाले खुराफात में शामिल होने की सूचना दे दी जाती है। अधिकांश कार्ड पहले से ही बता देते हैं कि होने वाली शादी में सामाजिक और अधार्मिक मिथक क्या- क्या होंगे। महंगा शादी का कार्ड अब सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। शादी में मंदिर और मस्जिद का उपयोग भी अपनी इच्छानुसार कर के हम कहीं न कहीं अनजाने में उसकी पवित्रता भी समाप्त कर रहे हैं। यहाँ मोबाइल और कैमरे का अनुचित उपयोग किसी से छुपा हुआ नहीं है।

      अब चलें मैरेज हॉल की तरफ़। सजावट ऐसी कि दुल्हन भी शरमा जाए। खाना ऐसा कि मुगल-किचन भी फीका पड़ जाए। दस साल पहले मैं एक शादी में खाने की राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में बैठा हुआ था। लोगों ने खाना शुरू कर दिया था, मुझ से बोले साहब आप बैठे क्यों हैं ? मैंने कहा, जनाब किधर से खाना शुरू करूँ ? आज तो लोग अपने पेट को मिक्सर और ग्राइंडर समझते हैं। खाने के एक ही प्लेट में गरम-ठंडा, खट्टा-मीठा, चिकन-मटन, रोटी- चावल, जैसे कि खाना को मुट्ठी में कर लिया हो। याद कीजिए उस समय को जब साधारण खाने में कितना प्रेम झलकता था। खाने के इस अंदाज से, मधुमेह और हृदय रोग तो फिर भी कम हैं। हद तो यह है कि अब तथाकथित बुफ़े- सिस्टम के तहत क़ैदियों की तरह कतार में लगकर खाना लेना और फिर खड़े- खड़े ही डकार लेना अब आम बात हो गई है। बैठ कर शालीनता से खाना अब गैर- मुहज़्ज़ब बात समझी जाती है। एक समय था जब दूल्हा- दुल्हन की शादी के पहले खाना खाने के बारे में सोचना भी अनैतिक समझा जाता था। किसी लकड़ी की शादी समाज की ज़िम्मेदारी समझी जाती थी। बारात के आगमन से लेकर प्रस्थान तक की वीडियोग्राफी के दौरान महिलाएं और लड़कियां कैमरे के सामने खुद को अभद्र रूप से शूट कराती रहती हैं। पश्चिमी संस्कृति की नकल में अब हम भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को भूल ही चुके हैं। अब तो महिलाएं भी अश्लील गानों पर बारात में सड़कों पर नाचती हुई देखी जा सकती हैं। शायद वह दिन दूर नहीं जब इन्ही कारणों से सड़कों पर व्यभिचार आम हो जाएगा।

        इस प्रकार गहन विचार करने पर यह सिद्ध हो गया है कि हमारी शादियाँ वास्तव में हमारे सम्पूर्ण स्वरूप का सच्चा प्रतिबिंब ( हमारा आईना ) होती हैं जिसका चेहरा अब बिगड़ चुका है। जब तक हम अपने घरों में जैसे-तैसे रहते हैं तब तक हम लोगों से छुपे रहते हैं परंतु बाहर में विशेष कर हमारी शादियाँ हमारी सभ्यता और चरित्र का पोल खोल देती हैं। हमारे विश्वास और धार्मिकता की गर्मी का अंदाजा हो जाता है। हमारे दुर्भावनापूर्ण धोखे से पर्दा हट जाता है। हमारे कर्म हमें मुँह चिढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। हमारी आत्मा मरी हुई प्रतीत होती है। 

      अभी भी समय है हम दिखावे की जिन्दगी से बाहर निकलें और सत्य मार्ग को आत्मसात करें। दौलत के प्रदर्शन से बचें और अपनी नई पीढ़ी को बचाएं वरना शैतान आपको इस कलयुग में नरक में पहुंचाने के लिए तैयार बैठा है। अंत में समाज के धनाढ्य लोगों से अनुरोध है कि वे विवाह में अपने धन का प्रदर्शन करने से बचें। उन्हें शायद इस बात का एहसास नहीं होता है कि इसका आम आदमी पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ग़रीब लोग बेचारे कर्ज़ लेकर भी अपनी अतृप्त इच्छा को पूरा करने की कोशिश में लगे हैं। परिणामस्वरूप, उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग वास्तव में परिस्थितियों से मजबूर होते हैं और बहुत लोग आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। अधिकांश लोग अपनी आंतरिक इच्छाओं को सामाजिक मजबूरी का नाम देते हैं जो उचित नहीं है। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी जानकार सज्जन हैं जो शादी की फिजूलखर्ची से पैसे बचाकर लोगों की सेवा करते हैं। ऐसे लोगों को मेरा सत- सत नमन। प्रार्थना है ईश्वर ऐसे लोगों को बड़ा इनाम दे, आमीन।

       हर इंसान अपने कर्मों के लिए ज़िम्मेदार है। हमें अपने मामलों पर भी नज़र रखनी चाहिए ताकि परलोक में मायूस न होना पड़े। हम यह भी प्रार्थना करते हैं कि वह हम सभी को शादी की निरर्थकता और मिथकों से बचने का अवसर दे। हो सकता है कि लोगों को मेरी ये बातें तुच्छ और बकवास लगें, लेकिन यह भी हो सकता है कि ईश्वर इन्हीं छोटी-छोटी और असामान्य गलतियों की सजा बड़े नुकसान के रूप में हमें दे रहा हो और हमें इसकी ख़बर भी न हो। हमारी सन्तान धन- लोभ में आजकल माता-पिता की हत्या भी कर रही हैै। वृद्धावस्था में कुछ लोगों को वृद्ध आश्रम में भी जाना पड़ रहा है। हो सकता है कि कुछ पढ़े-लिखे लोग इन वैवाहिक मिथकों को आधुनिकता का आवरण पहना कर इसे समय की ज़रूरत बताएं लेकिन समाज का बिगड़ता हुआ तानाा- बाना हमारी इन्हीं कुरीतियों का परिणाम हो सकती है। ऐसे लोगों को शायद अपनी गलतियों का एहसास तब होगा जब बुढ़ापे में उनके यही बच्चे उन्हें ठोकर मार देंगे और वे मृत्यु शय्या पर खुद को कोस रहे होंगेे। ऐसे उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं जो प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैंं। उम्मीद है कि जिन्होंने ऐसी ग़लतियाँ की हैं या ऐसी ग़लती करने वाले हैं, उनकी आत्मा निश्चित ही उन्हें दोष देगी और भविष्य में सावधान रहने के लिए मजबूर करेगी।

दहेज देना व्यर्थ परंपरा है


         नोट:- इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि कल तक जो वैवाहिक कुरीतियां बुरी मानी जाती थी वह आज के शिक्षित समाज में भी गर्व का विषय बन गयी हैं। लगता है कि समाज का पुरुषत्व मर चुका है। आवश्यकता इस बात की है कि बुद्धिजीवी वर्ग आगे बढ़े और समाज के इन रिवाजों को समाप्त करे जहां ग़रीब वर्ग धन के अभाव में अपना दम तोड़ रहा है।

सरफराज आलम, आलमगंज, पटना
मोबाइल नंबर 8825189373

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