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ज़ख्म अब रिसने लगे Zakham Ab Risne Lage : Hindi Kavita

ज़ख्म अब रिसने लगे : हिन्दी कविता


पुष्पा निर्मल

ज़ख्म अब रिसने लगे

🩸🩸🩸


अपने अपने ज़ख़्म लिए हंसते हुए चलते रहे।
मुझे प्यार करो ना करो, तुम्हें प्यार करते रहे।।

कुछ ज़ख्म अपनों ने दिए इतने गहरे, दर्द सहते रहे सदा।
पर हम तुम्हें प्यार बहुत ही करते हैं, आबाद रहना सदा।।
जख़्म लिए अपनों ने ऐसे, घाव नासूर हो, गहरे रिसने लगे।
मार के घाव भर जाते मगर, घाव गहरे बहुत टिसने लगे।।
दोश दें किसे ये तो किस्मत का खेल है यारा,
अपने अपने ज़ख़्म सभी ढोते रहें।
हमारा साथ ना भाएं जमाने को, 
प्यार सलामत रहे नहीं होंगे जुदा।
अक्सर आए बहुत याद,
हंसते हंसते सहे, दबाया बहुत,
जख्म छुपा कर दिया बिदा।।
रहते सदा साथ साथ हम थे,
नहीं बिछुड़ेगे कभी हम या खुदा।
तेरा नाम लेकर कहा था,
ऐसा ही सोचा सनम हमनें तो सदा।।
कुछ ज़ख्म ऐसे की नासुर बन रिसने लगे।         
इन्हें कुरेद कर हरा मत करना,
ये टीसें ऐसे की अपने से भी लगे सगे।। 
जख्म करना सहन, ताकत ही ना रहे,
अपने अपने ज़ख़्म लिए हम इतने, 
अपनी फ़िक्र भूल गए।
यही लफ्ज़ मुंह से निकले सदा,
हम ज़ख़्म भरते गए।।
इन्हीं प्यारी सी अदा पर मर मिटे, 
हम जख़्म भूल गए।
भूल हमसे क्या हुई आज कर बयां,
साद रह हम सफर पर चलते गए।।
रातें कहीं और बिताई,
तुम जहां भी रहते, 
याद बहुत आते सनम।
तेरे इन्तजार में हार मैं वारी, 
मेरी जान तुम हो सनम।।

‌पुष्पा निर्मल, 
बेतिया नगर निगम 
पश्चिम चंपारण 
बिहार

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