औपनिवेशिक राजस्व नीति के उद्देश्य: एक विस्तृत विश्लेषण
1. अधिकतम राजस्व संग्रह
(क) कर संग्रह को प्राथमिकता
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ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य अधिकतम कर संग्रह था।
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वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि स्थानीय शासकों और किसानों से अधिकतम कर वसूला जाए ताकि इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को लाभ हो।
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राजस्व संग्रह की यह प्रक्रिया स्थानीय कृषि उत्पादन की अनिश्चितताओं को ध्यान में रखे बिना लागू की गई थी।
(ख) स्थिर और नियमित राजस्व प्राप्ति
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ब्रिटिश शासन ने सुनिश्चित किया कि करों की वसूली नियमित और स्थिर हो।
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इसके लिए स्थायी बंदोबस्त प्रणाली लागू की गई, जिससे ज़मींदारों को कर संग्रह की ज़िम्मेदारी सौंपी गई।
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यह प्रणाली सरकार के लिए अधिक लाभकारी थी, क्योंकि इससे राजस्व में निरंतरता बनी रहती थी।
2. व्यापारिक हितों की पूर्ति
(क) ब्रिटिश उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराना
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औपनिवेशिक राजस्व नीति का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य भारतीय कृषि को नकदी फसलों के उत्पादन की ओर मोड़ना था।
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किसानों को नील, कपास, गन्ना और अफीम जैसी नकदी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया गया ताकि ब्रिटिश उद्योगों को सस्ता कच्चा माल मिल सके।
(ख) भारत को ब्रिटिश व्यापारिक हितों के अधीन बनाना
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ब्रिटिश राज चाहता था कि भारत एक उपनिवेशीय कृषि अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो, जहाँ उत्पादन का उद्देश्य ब्रिटिश बाजार की आवश्यकताओं को पूरा करना हो।
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स्थानीय उद्योगों और व्यापारिक संरचनाओं को कमजोर किया गया ताकि ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का बाजार भारत में आसानी से विकसित हो सके।
3. भारतीय समाज और कृषि संरचना में परिवर्तन
(क) ज़मींदारी और महाजन वर्ग का विकास
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औपनिवेशिक सरकार ने स्थायी बंदोबस्त (1793) के तहत ज़मींदारों को कर संग्रहकर्ता बना दिया।
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यह ज़मींदार अधिक राजस्व वसूलने के लिए किसानों का शोषण करने लगे, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर हुई।
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किसानों को साहूकारों और महाजनों से ऋण लेना पड़ता था, जिससे वे कर्ज़ के जाल में फँस गए।
(ख) पारंपरिक कृषि संरचना में परिवर्तन
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ब्रिटिश नीतियों ने स्वतंत्र कृषकों को भूमिहीन मजदूरों में बदल दिया।
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भारतीय कृषि पारंपरिक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था से हटकर नकदी फसलों पर आधारित व्यावसायिक कृषि में परिवर्तित हो गई।
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इससे खाद्यान्न उत्पादन घटा और अकाल की घटनाएँ बढ़ीं।
4. भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर करना
(क) भारी कर और किसानों का शोषण
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किसानों पर करों का भारी बोझ डाल दिया गया, जो ब्रिटिश शासन से पहले के करों से कई गुना अधिक था।
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करों का भुगतान नकद में करना अनिवार्य कर दिया गया, जिससे किसानों की स्थिति और खराब हो गई।
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अगर किसान समय पर कर नहीं चुका पाते, तो उनकी ज़मीनें ज़मींदारों और साहूकारों द्वारा हथिया ली जाती थीं।
(ख) पारंपरिक ग्राम उद्योगों का विनाश
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भारतीय गाँवों में पारंपरिक रूप से कृषि और कुटीर उद्योगों का संतुलन था।
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ब्रिटिश राज ने हस्तकला और लघु उद्योगों को समाप्त करने के लिए भारी कर लगाए, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
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ग्रामीण शिल्पकार और कारीगर बेरोजगार हो गए और कई लोग कृषि मजदूर बनने को मजबूर हो गए।
5. प्रशासनिक नियंत्रण और सत्ता का केंद्रीकरण
(क) औपनिवेशिक सत्ता को मजबूत करना
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राजस्व नीति के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने भारत में प्रशासनिक नियंत्रण मजबूत किया।
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ज़मींदारों, महाजनों और व्यापारियों को अपने पक्ष में करके उन्होंने सत्ता को स्थिर रखा।
(ख) ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान वर्ग तैयार करना
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ज़मींदार और साहूकार जैसे वर्गों को मजबूत करके ब्रिटिश राज ने एक ऐसा तबका तैयार किया, जो हमेशा उनके हितों की रक्षा करे।
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यह वर्ग ब्रिटिश सरकार का समर्थन करता था, जिससे उन्होंने विद्रोहों को नियंत्रित रखने में सफलता पाई।
6. ब्रिटिश सरकार के राजस्व सुधारों का प्रभाव
(क) किसानों की स्थिति बदतर हुई
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भारी करों के कारण किसान गरीबी और कर्ज़ में फँसते चले गए।
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भूमि की जब्ती आम हो गई, जिससे किसान बेरोजगार और भूमिहीन मजदूर बन गए।
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खाद्यान्न उत्पादन घटने से अकाल और भुखमरी की घटनाएँ बढ़ गईं।
(ख) ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पतन
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ब्रिटिश नीतियों के कारण भारतीय कृषि व्यावसायिक खेती पर केंद्रित हो गई, जिससे गाँवों की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई।
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स्थानीय उद्योग धंधे नष्ट हो गए और ग्रामीण कारीगर मजदूरी करने को मजबूर हुए।
(ग) विद्रोह और असंतोष की स्थिति
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किसानों और ज़मींदारों पर बढ़ते करों के कारण 1857 का विद्रोह सहित कई विद्रोह हुए।
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किसानों और आदिवासियों ने संथाल विद्रोह (1855), नील विद्रोह (1860) और दक्कन दंगे (1875) जैसे आंदोलनों में भाग लिया।
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