समाज सेवा हो धर्म हमारा
(कविता)
समाज सेवा हो, धर्म हमारा सारा,
मेवा से फिर क्यों न करें किनारा?
सेवा में त्याग है, निस्वार्थ भाव है,
इसी से मिलती अनाथ को सहारा।
समाज सेवा हो…………
मानवता की सेवा पर हमें अभिमान,
जीवन का है यह सबसे बड़ा वरदान।
इससे बड़ा कोई धर्म नहीं, कर्म नहीं,
यही उपदेश देती हमको जीवन धारा।
समाज सेवा हो………..
सेवा के होते हैं दुनिया में रूप अनेक,
परंतु हर सेवा का लक्ष्य होता है एक।
इसके दिखावे की कोई जरूरत नहीं है,
सच्ची सेवा पेश करती सही नजारा।
समाज सेवा हो……….
राष्ट्र सेवा का होता है पहला स्थान,
इससे जुड़ी है हर चेहरे की मुस्कान।
स्वार्थ रहित कर्म ही सच्ची सेवा है,
गर्दिश से बाहर निकलता सितारा।
समाज सेवा हो………..
प्रमाणित किया जाता है कि यह रचना स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसका सर्वाधिकार कवि/कलमकार के पास सुरक्षित है।
सूबेदार कृष्णदेव प्रसाद सिंह,
जयनगर (मधुबनी) बिहार/
नासिक (महाराष्ट्र)
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