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15वीं शताब्दी में भारत के सामुद्रिक व्यापार का विवरण दीजिए

15वीं शताब्दी में भारत के सामुद्रिक व्यापार का विवरण

(A Detailed Account of India’s Maritime Trade in the 15th Century)

प्रस्तावना
15वीं शताब्दी भारत के व्यापारिक इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कालखंड था। इस समय भारत न केवल भूमि मार्गों से, बल्कि समुद्री मार्गों से भी व्यापक व्यापार कर रहा था। पश्चिमी एशिया, पूर्वी अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और यहाँ तक कि चीन तक भारत के समुद्री संबंध थे। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब यूरोपीय शक्तियाँ विशेषकर पुर्तगाली भारत की ओर समुद्री मार्ग से आने लगीं, तब भारत के इस पारंपरिक समुद्री व्यापार की प्रकृति और दिशा दोनों में परिवर्तन आने लगा।

1. सामुद्रिक व्यापार के प्रमुख बंदरगाह

15वीं शताब्दी में भारत के विभिन्न क्षेत्रों के तटीय इलाकों में कई समृद्ध बंदरगाह थे:

(i) पश्चिमी तट के बंदरगाह:

सूरत (गुजरात) – यह भारत के पश्चिमी तट का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था जहाँ से कपड़ा, मसाले, चावल, और रत्नों का निर्यात होता था।

खंभात – अरब और फारसी व्यापारियों का केंद्र, जहाँ से घोड़े, इत्र, कांच, और ऊन आयात होते थे।

कालीकट (मालाबार तट) – मसालों का व्यापार यहाँ से होता था और यह ज़मोरिन के अधीन था।

कोच्चि और क्विलोन – दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण बंदरगाह, जहाँ से चीन और अरब के साथ व्यापार चलता था।

(ii) पूर्वी तट के बंदरगाह:

मछलीपट्टनम और नागापट्टनम – यहाँ से दक्षिण-पूर्व एशिया और श्रीलंका के लिए वस्त्र, चावल और मसालों का व्यापार होता था।

ताम्रलिप्ति (बंगाल) – बंगाल का यह बंदरगाह चीन और बर्मा के व्यापार के लिए जाना जाता था।

2. प्रमुख व्यापारिक वस्तुएँ

भारत अपने समुद्री व्यापार के माध्यम से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्यात और आयात करता था:

निर्यात की प्रमुख वस्तुएँ:

  • मसाले (काली मिर्च, इलायची, लौंग)
  • सूती और रेशमी वस्त्र
  • चावल, गेहूं, दालें
  • कीमती पत्थर, मोती
  • चीनी, गुड़, और इत्र

आयात की वस्तुएँ:

  • घोड़े (मुख्यतः अरब और मध्य एशिया से)
  • ऊन, काँच, धातु, और शराब
  • विदेशी लकड़ी, सुगंधित तेल
  • हथियार और नवाचारपूर्ण यंत्र

3. व्यापारिक समुदायों की भूमिका

(i) गुजराती व्यापारी:

गुजरात के बनिया, बोहरा और मुसलमान व्यापारी अरब देशों तक व्यापार करते थे। इनके द्वारा पश्चिम एशिया में भारतीय वस्त्रों की भारी माँग थी।

(ii) मलाबार व्यापारी:

यहाँ के मुस्लिम मप्पिला व्यापारी और नायर समुदाय समुद्री व्यापार में सक्रिय थे। कालीकट के ज़मोरिन ने इन्हें संरक्षण दिया था।

(iii) तमिल और तेलुगु व्यापारी:

ये व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार करते थे और नागापट्टनम तथा मछलीपट्टनम से जहाज भेजते थे।

(iv) अरब और फारसी व्यापारी:

ये व्यापारी भारतीय बंदरगाहों पर व्यापार करते हुए स्थानीय समुदायों के साथ घुलमिल जाते थे और उन्होंने सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी योगदान दिया।

4. तकनीकी और नौसैनिक प्रगति

  • भारतीय समुद्री व्यापार उस समय विकसित जहाज निर्माण तकनीक पर आधारित था:
  • बड़े व्यापारिक जहाज ‘धौ’ (Dhow) और ‘जंक’ (Junk) बनाए जाते थे।
  • मानसून हवाओं की जानकारी के आधार पर यात्रा योजनाएँ बनाई जाती थीं।
  • नेविगेशन के लिए खगोलीय ज्ञान और तारों की दिशा का उपयोग किया जाता था।

5. विदेशी संपर्क और पुर्तगालियों का आगमन

15वीं शताब्दी के अंत में 1498 ई. में वास्को-दा-गामा का कालीकट आगमन भारत के समुद्री व्यापार के इतिहास में बड़ा मोड़ था।

प्रभाव:

  • पारंपरिक व्यापार मार्गों पर यूरोपीय नियंत्रण बढ़ने लगा।
  • भारत के पारंपरिक अरब, फारसी और स्थानीय व्यापारियों को चुनौतियाँ मिलने लगीं।
  • पुर्तगालियों ने गोवा, कालीकट, कोचीन जैसे बंदरगाहों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

6. व्यापार और संस्कृति

भारत के समुद्री व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रभावों का भी आदान-प्रदान हुआ:

  • भारतीय वस्त्र और व्यंजन दक्षिण-पूर्व एशिया में लोकप्रिय हुए।
  • हिंदू और बौद्ध धर्म का प्रचार समुद्री मार्गों से हुआ।
  • दक्षिण भारत के चोल और पांड्य शासकों ने भी विदेशों में अपनी सांस्कृतिक छाप छोड़ी थी।

निष्कर्ष

15वीं शताब्दी में भारत का समुद्री व्यापार अत्यंत सशक्त, विस्तृत और व्यवस्थित था। भारत की भू-आकृतिक स्थिति, व्यापारिक समुदायों की सक्रियता, तकनीकी प्रगति और वस्त्र एवं मसालों की वैश्विक माँग ने इसे समृद्ध बनाया। यद्यपि इस युग के अंत में यूरोपीय उपनिवेशवाद की शुरुआत ने पारंपरिक ढाँचों को तोड़ने का प्रयास किया, फिर भी भारतीय समुद्री व्यापार की यह परंपरा सदियों तक अनेक क्षेत्रों में प्रभावशाली बनी रही।

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